Special Article: राजस्थान- महत्वाकांक्षा की जंग..

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सीनियर जर्नलिस्ट हितेष व्यास की कलम से…

राजस्थान की सियासत में जारी उठापटक ‘सम्मान’ की लड़ाई से ज्यादा ‘महत्वाकांक्षाओं’ की जंग ज्यादा नजर आती है, एक युवा नेता के सीएम बनने की महत्वाकांक्षा, तो दूसरे के सीएम रहते हुए अपने पुत्र के लिए राजनीतिक जमीन तैयार करने की महात्वाकांक्षा.. इसमें कोई दो राय नहीं कि 2018 के विधानसभा चुनाव में राजस्थान में कांग्रेस की जीत के असली कर्णधार सचिन पायलट ही थे, भले ही राजस्थान की जनता हर पांच साल में सरकार बदलने का फैसला सुनाती हो लेकिन इस बार पायलट के चेहरे को देखकर ही राजस्थान की जनता ने मुहर लगाई थी.. तब अशोक गहलोत राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय थे और गुजरात के प्रभारी भी थे.. ऐसे में मुख्यमंत्री पद के लिए सचिन की दावेदारी स्वाभाविक थी.. लेकिन आलाकमान ने सचिन को दरकिनार कर अशोक गहलोत को एक बार फिर कमान सौंप दी और प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट को डिप्टी सीएम पद का कड़वा घूंट पीकर शांत होना पड़ा।

एक युवा, सौम्य और बेहद शानदार वक्ता को राज्य की कमान सौंपकर कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष राहुल गांधी एक नजीर पेश कर सकते थे, जिससे युवाओं के बीच भी एक सकारात्मक संदेश जाता, लेकिन सियासत के माहिर खिलाड़ी अशोक गहलोत का अनुभव, पार्टी के प्रति पुरानी वफादारी भारी पड़ी और आखिर वक्त में गहलोत बाजी जीत ले गए। उस वक्त भले ही पायलट डिप्टी सीएम के पद से मान गए लेकिन ये तय था कि राजस्थान की सियासत इन दो नेताओं की आपसी खींचतान से अछूती नहीं रह पाएगी। हुआ भी वही।

इस बीच अशोक गहलोत लगातार अपने पुत्र वैभव गहलोत के लिए राजनीतिक जमीन तैयार करने में लगे रहे, 2019 के लोकसभा चुनाव में जोधपुर सीट से अपने बेटे को टिकट दिलाने में भी कामयाब रहे, बता दें कि जोधपुर सीट से ही अशोक गहलोत भी सांसद चुने जाते रहे, लेकिन मोदी लहर में राजस्थान से एक बार फिर कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया, वैभव भी चुनाव हार गए, 2018 के विधानसभा चुनाव में जिस राज्य में कांग्रेस की जीत का डंका बजा वहां 6 महीने बाद हुए चुनाव में पार्टी 25 की 25 सीटों पर हार गई। तब राहुल गांधी की नाराजगी की भी खबरें आई, राहुल खास तौर पर अशोक गहलोत से भी नाराज थे कि उन्होंने पुत्र मोह में लोकसभा चुनाव में पार्टी का नुकसान करवा दिया। बड़े जतन से अशोक गहलोत राहुल से मुलाकात कर पाए थे। इसके बाद भी लगातार राज्य में वैभव गहलोत का ‘वैभव’ कम नहीं हुआ, वो राजस्थान क्रिकेट एकेडमी के अध्यक्ष चुन लिए गए… जाहिर है पायलट की नाराजगी की कई सारी वजहों में से एक वजह ये भी थी। इस लिहाज से एक बार फिर इसे आलाकमान की दूसरी चूक के रूप में देखा जाना चाहिए कि वो अपने युवा नेता की नाराजगी को वक्त रहते भांप नहीं पाए, और ना ही जिस ‘सम्मान’ की खातिर पायलट आज बगावत पर उतारू हैं, उस सम्मान का ख्याल रखने की कोशिश की गई।

इस पूरे प्रकरण को मध्यप्रदेश के हालात से जोड़ भी सकते हैं और नहीं भी.. जोड़ इसलिए सकते हैं कि जिस तरह सिंधिया के पार्टी से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल होने के बाद उनके 22 समर्थकों ने भी मंत्री पद और विधायकी छोड़ देने से कमलनाथ सरकार अल्पमत में आ गई और सत्ता पर एक बार फिर शिवराज काबिज हो गए, कमोबेश वैसा ही एक बार फिर राजस्थान में दोहराया जा सकता है, लेकिन संख्याबल के मामले में पेंच फंस सकता है… एमपी से इसलिए नहीं जोड़ा जाना चाहिए कि मध्यप्रदेश में सिंधिया ना तो डिप्टी सीएम थे, ना उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया था, रही सही कसर लोकसभा चुनाव में मिली हार ने पूरी कर दी थी… लेकिन इसके उलट पायलट के संदर्भ में कम से कम ये नहीं कहा जा सकता है कि पार्टी में पद देने में उनकी अनदेखी हुई, क्योंकि प्रदेश अध्यक्ष की कमान उनके हाथों में है, वो उप मुख्यमंत्री भी हैं.. इसलिए ये कहना गलत नहीं होगा कि पायलट की इस नाराजगी को मान-सम्मान की लड़ाई से ज्यादा महत्वाकांक्षा की जंग कहना ज्यादा बेहतर होगा.. चुंकी सम्मान की जंग तो वो उसी दिन हार गए थे जब उन्होंने सीएम के बजाए डिप्टी सीएम बनने के लिए हामी भरी थी।

अब रही बात उनके अगले कदम की, तो उनके पास तीन विकल्प हैं.. पहला भाजपा में शामिल होना, दूसरा अपनी अलग पार्टी बनाना और तीसरा कांग्रेस में रहकर अपनी जड़ें मजबूत करना… सबसे पहले बात भाजपा में शामिल होने की विकल्प की.. तो भाजपा में जाना पायलट की एक और बड़ी भूल साबित हो सकती है, एक तो राजस्थान भाजपा में वसुंधरा राजे, गुलाबचंद कटारिया, राजेंद्र राठौर समेत कई दिग्गज नेताओं के रहते सचिन पायलट की डगर आसान नहीं रहने वाली, दूसरा जिस मान-सम्मान की खातिर वो बगावत की बिगुल बजा रहे हैं वो सम्मान उन्हें भाजपा में मिल जाए संभावना कम ही नजर आती है। दूसरा विकल्प यानि अलग पार्टी बनाने की संभावना ज्यादा प्रबल नजर आती है, जानकार बता रहे हैं कि पायलट ‘प्रगतिशील कांग्रेस’ के नाम से अपनी अलग पार्टी बना सकते हैं, वर्तमान हालात में ये संभावना ज्यादा प्रबल नजर आती है.. इससे उनका सम्मान भी बचा रहेगा और भाजपा में शामिल होने से दगाबाजी और धोेखेबाजी की टैग भी नहीं लगेगा (जैसा ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए कांग्रेस जमकर प्रचारित कर रही है)। तीसरा विकल्प ये है कि पार्टी उन्हें मनाने में कामयाब रहे और वो कांग्रेस पार्टी के साथ ही बने रहें, लेकिन फिलहाल के हालात देखकर इस विकल्प की संभावना सबसे कमजोर नजर आती है।

खैर अब सिर्फ इंतजार किया जा सकता है कि कौन क्या चाल चलता है और शह मात और महत्वाकांक्षा की जंग में जीत किसकी होती है। लेकिन एक बात तय है देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को गहरा आत्ममंथन करने की आवश्यकता है जिसके एक के बाद एक युवा नेता पार्टी से नाराज होकर अलविदा कह रहे हैं। पहले असम में हेमंता बिसवा सरमा, फिर ज्योतिरादित्य सिंधिया और अब सचिन पायलट भी उसी राह पर निकल पड़े हैं।