बाल विवाह रोकने अनोखी पहल: आदिवासी समाज ने नाबालिग की तीर से करा दी शादी और इस तरह परंपरा को सहेजा…

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गरियाबंद। जहां पूरे देश भर में बाल विवाह रोकने का प्रयास किया जा रहा है वहीं सरकारी भी अपनी तरह से तरह तरह के अभियान चला रही है इसी बीच छत्तीसगढ़ की आदिवासी समाज ने एक नई पहल की है। रुढ़िवादिता को तोड़कर संस्कृति को किस तरह सहेजना है, यह सीखना हो तो गरियाबंध के टेंवारी गांव में चलिए। वहां भुंजिया आदिवासीसमाज ने कच्ची उम्र की बच्चियों की शादी को गलत तो माना लेकिन परंपरा को ऐसे सहेजा कि खुद मिसाल बन गए। यहां का समाज पिछले कई साल से बच्चियों (5 से 9 साल तक) की शादी कर रहा है, लेकिन केवल तीर से। इसे वे कांड़ विवाह कहते हैं। इस विशेष समुदाय में तीर का विशेष महत्व है और बड़े-बुजुर्गों का मानना है कि बेटी की तीर की शादी से उसे भी पवित्रता हासिल हो जाती है।

यहां से लगे फुलकर्रा कांव के टीचर लुपेश्वर प्रधान ने बताया कि इस समुदाय ने बाल विवाह को खत्म करने की ठानी थी और पूर्वजों की परंपरा भी बचाए रखनी थी। इसलिए उन्होंने बच्चियों की तीर (बाण) से विवाह की प्रथा शुरू की। नतीजा ये हुआकि समुदाय में तीर से शादी करने की वजह से बालिग होने तक बच्ची का मान-सम्मान बना रहता है। सही उम्र में पहुंचने के बाद शादी की जाती है और इसे नाम दिया गया है-बड़ी शादी।

भास्कर टीम ने टेंवारी में कांड़ विवाह परंपरा से जुड़ी जगहें देखीं, उनका महत्व भी जाना। समाज के लोगों ने बताया कि तीर से शादी घर के लोग ही अपने अांगन में करवाते हैं, फिर ऐसी शादी करनेवाली बच्चियों को हर घर में बने देवस्थान यानी लाल बंगला में शिफ्ट कर दिया जाता है। यह दरअसल लाल रंग से रंगी हुई झोपड़ी होती है, जिसमें देवी स्थापित रहती है और परिवार का भोजन भी यहीं पकता है। यह उस कुटिया के समतुल्य माना गया है, जिसमें रामायण काल में माता सीता रहती थीं और लक्ष्मण इसके बाहर रेखा खींचकर गए थे। इसके प्रतीक के तौर पर लाल बंगला के बाहर बांस से बाउंड्री बनाई जाती है आज भी समाज में उसे लक्ष्मण रेखा ही कहा जाता है। समुदाय के तातुराम ने बताया कि तीर से विवाह की परंपरा रामायण काल से चल रही है। लेकिन पहले बच्चियों का विवाह तीर के साथ-साथ हमउम्र लड़के से भी होता था। समाज ने बाल विवाह को रोकने के लिए फैसला किया कि विवाह तीर से ही होगा, लड़के नहीं रहेंगे।

सिर्फ कुंवारी आग का ही होता है प्रयोग

इस शादी से जुड़ी एक रोचक रस्म है, कुंवारी आग की । विवाह के दौरान पूजा के लिए दिये जलाए जाते हैं, मगर इनमें माचिस से आग नहीं जलाई जाती। इसके लिए जंगल की लकड़ी के टुकड़े को कपास पर रखकर हथेली के बीच घुमाया (मथा) जाता है। कुछ देर तक ऐसा करने से पैदा होने वाले घिसाव से कपास जल जाता है। इस क्षेत्र में मिलने वाले चकमक पत्थरों का भी इसके लिए प्रयोग किया जाता है। इस आग को कुंवारी आग कहा जाता है। सिर्फ व्यस्कों की शादी में ही माचिस वगैरह का प्रयोग होता है। माचिस से मिलने वाली आग को यह समुदाय विवाहित आग कहता है, इसलिए बच्ची की शादी में इसका इस्तेमाल नहीं होता।

भुंजिया जनजाति

गरियाबंद जिले के टेंवारी गांव में भुंजिया जनजाति के लोग रहते हैं। यहां स्थित पैरी नदी के किनारे रहने वाले इस समुदाय की मान्यता है कि यह किनारा छोड़ कहीं और भुंजिया समुदाय नहीं रह सकता । इस मान्यता के पीछे किवदंती प्रचलित है कि महाभारत काल में इन्हें यह जगह रहने के लिए दी गई थी। जिले के कोडोपाली, हाट महुआ, बाघमार, तेंदुवाय, लिमडीही, डुमरवाहरा, गुडलवाह, रायमा और महुआभांटा इलाकों में यह जनजाति पाई जाती है।

ऐसे होता है कांड़ विवाह

गांव के खेमलाल ने बताया कि कांड़ विवाह का यह समारोह दो दिनों तक चलता है। इसमें गांव के सभी घरों से लोग शामिल होते हैं। सभी मेहमानों के सम्मान में उनके पैर धोए जाते हैं। देवों को नमन किया जाता है ताकि कार्यक्रम सफल हो। तीर और बच्ची को खजूर (छिंद) के पेड़ की पत्तियों से बने सेहरे से सजाया जाता है। पेड़ की एक डाल जमीन में गाड़ दी जाती है, इसे ही मंडप माना जाता है। पहले दिन दोपहर से शुरु होने वाली रस्में रातभर होती है।

इसके बाद अगले दिन घर से बाहर गांव की गली में तीर और बच्ची को एक चादर की आड़ में खड़ा कर महिलाएं, भुंजिया गीत गाती हैं। गीत हास्य भरे होते हैं, इनमें महिलाएं एक दूसरे को छेड़ती हैं। तीर को लेकर समुदाय का ही एक युवक चादर की दूसरी ओर खड़ा होता है। इसके बाद बच्ची को चादर की दूसरी ओर से तीर के पास भेज दिया जाता है। यह शादी समाप्त हो जाती है। परिजन पैर धोकर बेटी का स्वागत करते हैं। तीर को देवस्थान के पास रख दिया जाता है। विशेष पर्व के दौरान तीर की पूजा की जाती है।