साल 2025 तक भारत को होना है टीबी मुक्त, तीन राज्य मरीजो के स्क्रीनिंग में पिछड़े छत्तीसगढ़ भी शामिल कोरोना, निजी अस्पताल की लापरवाही और स्टिग्मा बना कारण…

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रायपुर, 28 फरवरी 2022। केंद्र सरकार साल 2025 तक देश को टीबी मुक्त करना चाह रही है। लेकिन ऐसे कई राज्य हैं, जहां पर अभी तक मरीजों की स्क्रीनिंग ही पूरी नहीं हुई है। छत्तीसगढ़ भी उनमें से एक राज्य है, जबकी राज्य सरकार का टारगेट साल 2023 तक छत्तीसगढ़ को कोरोना मुक्त करना था। स्वास्थ्य विभाग कोरोना संक्रमण और लॉकडाउन को इसका कारण बता रहा है, लेकिन यह लापरवाही लंबे समय से जारी है। बीते 3 साल के आंकड़ों की ही बात करें तो पब्लिक सेक्टर में जांच का टारगेट 80 से 90 प्रतिशत तक पूरा होता है लेकिन प्राइवेट सेक्टर अपनी जांच का आधा भी टारगेट पूरा नहीं करते। अगर होता भी है तो उसकी जानकारी सरकार तक नहीं पहुंचाते। ऐसा कर वे मरीजों से मोटी कमाई करते हैं। कोरोना काल के दौरान साल 2020 में रायपुर के 9720 मरीज खोजने का टारगेट है लेकिन विभाग केवल 5044 मरीज की खोज पाया। साल 2021 में भी 9720 टारगेट दिया गया था लेकिन विभाग 5238 नए मरीजों का पता लगा पाया। कोरोना के पहले भी यही हाल था। साल 2019 में यह टारगेट 8680 था जिसमें से 6900 ही टीबी मरीज खोजे गए थे। जबकि साल 2021 से टीबी मरीजों की स्क्रीनिंग और इलाज के लिए अभियान चलाया जा रहा है। परेशान स्वास्थ्य विभाग निजी संस्थान की मदद से अब मरीजों को खोजने की कोशिश कर रहा है। HLF PPT नाम की संस्था टीबी के सबसे अधिक सम्भावित जिले रायपुर, बिलासपुर, रायगढ़, दुर्ग, कोरबा और धमतरी जिलों में काम कर रही है। HLF PPT के कर्मचारी बता रहे हैं कि उनका काम निजी अस्पतालों, नर्सिंग होम में आने वाले टीबी के लक्षण वाले मरीजों की काउंसिलिंग करना और उन्हें सरकारी योजना से जोड़ना है। इससे मरीजों को महंगी जांच और इलाज की सुविधा मुफ्त मिलेगी। क्योंकि टीबी की जांच निजी संस्थानों में 4 से 5 हजार रुपए की होती है, इलाज भी महंगा है। कई निजी अस्पताल या नर्सिंग होम कमाई के चक्कर मे मरीजों की जानकारी विभाग को नहीं देते। जब मरीज इस जांच और इलाज का खर्च नहीं उठा पाते तो वे नीम-हकीम और झोलाछाप का रुख कर लेते हैं। दवा में लापवाही के कारण से टीबी मरीजों में MDR यानी मल्टी ड्रग रजिस्टेंस की संख्या बढ़ती जा रही है। केवल रायपुर में ही एमडीआर मरीजों की संख्या 111 हो चुकी है। जबकि 8 सालों में एमडीआर के 93 ही मरीज थी, इधर 1 मरीज में XDR टीबी की पहचान हुई है।
टीबी के स्टेट टीबी ऑफिसर वाई के शर्मा बता रहे हैं कि प्राइवेट डॉक्टरों को बार बार पत्र लिखकर समय पर कोरोना मरीजों की जानकारी भेजने कहते हैं। रायपुर की मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी डॉ मीरा बघेल बता रही हैं कि टीबी जांच की कुछ मशीनें कोरोना जाँच में लगाई गई थीं, सभी सीबी नॉट मशीनों को वापस कोरोना जाँच में लगा दिया गया है।

कोरोना की जांच के कारण भाग जाते थे मरीज
स्वास्थ्य विभाग के अनुसार टीबी मरीजो कि पहचान और इलाज विभाग की प्राथमिकता है। इसीलिए कारोना काल के दौरान भी मेडिकल कॉलेज अस्पताल, जिला अस्पताल, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, प्राथमिक स्वास्थ केंद्र में टीबी मरीजों की जांच के लिए अलग से काउंटर बनाया गया था। लेकिन जब मरीज सामान्य ओपीडी में पहुंचते थे तो उन्हें सर्दी, खांसी, बुखार की शिकायत पर कोरोना जांच के लिए कहा जाता था। क्योंकि कोरोना मैं भी यही लक्षण दिखाई देते थे।टीबी मरीजों के लिए काम करने वाली स्वयंसेवी संस्थाओ का भी कहना है टीबी के मरीज अपनी पहचान उजागर होने के डर से भी जांच नहीं कराते क्योंकि समाज में टीबी मरीजों को हीन भावना से देखा जाता है। लोग उनसे दूरी बना लेते हैं। जरूरत है लोगों को टीबी के प्रति जागरुक किया जाय।

लॉकडाउन के दौरान हुई लापरवाही पड़ने लगी है भारी

लॉकडाउन के दौरान दवा लेने
में बरती गई लापरवाही राज्य के टीबी मरीजों पर भारी पड़ने लगी है। उनमें टीबी का दोबारा अटैक यानी एमडीआर टीबी का खतरा बढ़ गया है। यह एम्स रायपुर के सर्वे में सामने आया है। एम्स के पल्मोनरी विभाग के डॉक्टरों की टीम ने राज्यभर के 250 से अधिक टीबी मरीजों के बीच यह सर्वे किया। फोन और अस्पताल आने वाले मरीजों के बीच सर्वे किया गया। सर्वे के दौरान कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। सर्वे में मरीजों ने बताया कि ग्रामीण क्षेत्रों के कई अस्पतालों व नजदीक केंद्रों से मरीजों को निशुल्क मिलने वाली दवा नहीं मिली। कई जगह समय पर डॉक्टरों के नहीं मिलने के कारण मरीज अपने लिये दवा नहीं ले पाए। इस पूरे लॉकडाउन में 20 से 25 प्रतिशत टीबी मरीजों ने किसी ना किसी कारण से दवा छोड़ दी।
विशेषज्ञ बता रहे हैं कि टीबी मरीजों को लॉकडाउन में लगातार दो से तीन महीने दवा नहीं मिलने से भविष्य में ऐसे मरीजों में एमडीआर टीबी का खतरा काफी बढ़ गया है। देश में प्रतिदिन 1200 से 1500 टीबी मरीज मरते हैं। इनमें छत्तीसगढ़ के मरीजों की संख्या भी अच्छी खासी है। मरने वाले अधिकतर लोग एमडीआर टीबी के ही शिकार होते हैं।

टीबी और एमडीआर टीबी में अंतर


टीबी फेफड़े की बीमारी है, जो एक खास प्रकार की माइक्रोबैक्टेरियम ट्यूबर क्योलॉसिस बैक्टेरिया से होती है। यह एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलती है। सामान्य टीबी में मरीजों को जो दवा दी जाती है। अगर कोई मरीज छह माह तक चलने वाली इस दवा का नियमित सेवन करे तो उसकी टीबी की बीमारी ठीक हो जाती है। मगर बीच में दवा छोड़ देने पर यह एमडीआर टीबी का रूप ले लेती है।

दो साल तक इलाज


एमडीआर टीबी का एडवांस स्टेज है, जिसमें सामान्य दवाइयां काम नहीं करती हैं। इसमें दवा का डोज बढ़ जाता है और छह माह की बजाय दो साल तक दवा खानी पड़ती है। छह इंजेक्शन भी लेने पड़ते हैं। दो साल के डोज में एक-दो सप्ताह दवा छूट जाए जो यह जान पर भारी पड़ने लगती है।

शरीर के भार के अनुसार नहीं दे रहे टीबी की दवा

टीबी मरीजों के जल्द स्वास्थ्य लाभ के लिए सरकार की ओर डॉट की दवाइयां मुफ्त दी जा रही हैं। इसके बावजूद कुछ मरीजों में सुधार नहीं दिख रहा है। इसका मुख्य कारण है कि डॉट के तहत दी जाने वाली विभिन्न प्रकार की एंटीबायोटिक और दूसरी दवाओं का मिश्रण टीबी के मरीजों को उनके शरीर के भार के अनुसार नहीं दिया जाता है। दवाओं की डोज भी शरीर के भार के अनुसार घटाई या बढ़ाई नहीं जाती है। सभी मरीजों को एक ही अनुपात में दवाएं दी जाती है। जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए। यह कहना है रायपुर मेडिकल कॉलेज के माइक्रोबायलॉजिस्ट डॉ डॉ अरविंद नेरल का..प्रो. नेरल के अनुसार हर मरीज के शरीर का ड्रग रजिस्टेंस अलग-अलग होता है। मरीज को इसकी जानकारी नहीं होती है। कई बार डॉक्टर भी लापरवाही करते हैं। हालांकि इसके लिए कई बार मरीज भी जिम्मेदार होते हैं। टीबी की दवा शुरू होने के बाद वह बीच में दवाएं लेना बंद कर देते हैं। इसके बाद जब उन्हें दोबारा दवा दी जाती है तो वह दवाएं काम नहीं करती हैं। हालांकि डॉ नेरल का कहना है कि टीबी के मरीज नियमित रूप से दवाएं और खुद भी सतर्क रहें तो उनकी बीमारी ठीक हो सकती है।

दमा मरीजों के लिए अच्छा रहा लॉकडाउन
टीबी मरीज के लिए लॉकडाउन ठीक नहीं रहा तो दूसरी ओर यह दमा (अस्थमा) मरीजों के लिए काफी अच्छा रहा। गाड़ी-मोटर और कारखाने आदि नहीं चलने से प्रदूषण कम हुआ। इससे दमा मरीजों को सांस लेने में कम परेशानी हुई। दूसरे वे गंभीर रूप से भी कम बीमार हुए। पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष दमा मरीज एम्स में भी कम आए। रायपुर मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल में पिछले वर्ष अप्रैल और मई में दमा के 21 मरीज गंभीर अवस्था में भर्ती होने एम्स आए थे, वहीं इस वर्ष ऐसे मरीजों की संख्या सिर्फ नौ रही।

आरएनटीसीपी कार्यक्रम के कर्मचारी हैं नाराज़
आरएनटीसीपी कार्यक्रम के तहत काम करने वाले कर्मचारी सरकार से नाराज हैं। उनका कहना है कि लंबे समय से उनसे संविदा कर्मचारी के रूप में काम किया जा रहा है, जबकि इसके लिए अन्य राज्यों की तुलना में उन्हें कम वेतन दिया जा रहा है। विभाग के नियमित कर्मचारियों से भी कम वेतन मिल रहा है। इस काम में रिस्क ज्यादा है, इसलिए उन्हें नियमित कर्मचारियों के बराबर वेतन मिलना चाहिए। जबकि टीबी के स्टेट नोडल अधिकारी वाई के शर्मा का कहना है कि उन्हें जितना वेतन मिल रहा है यह उनके सेवा शर्तों के अनुसार है। कर्मचारियों का आना जाना लगा रहता है। अगर वह छोड़कर जाते हैं तो उनकी जगह नए कर्मचारियों की नियुक्ति होगी। जबकि कर्मचारी अपने नाराजगी का कारण सरकार द्वारा किया गया नियमितीकरण के वादे को बता रहे हैं। अगर दोनों के मध्य सहमति नहीं बनती तो 2025 तक भारत को टीबी मुक्त अभियान प्रभावित हो सकता है।