बूढ़ा दरख्त कांप के खामोश हो गया… पत्ते हवा के साथ बहुत दूर चले गये…..

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वरिष्ठ पत्रकार शंकर पांडेय की कलम से…

कांग्रेस में सांसद, केंद्रीय मंत्री रह चुके ग्वालियर के महाराजा ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भाजपा का दामन थामकर अपने समर्थक कांग्रेस के विधायकों को इस्तीफा दिलाकर कमलनाथ सरकार को चुनौती दे दी है। लगता है कि वे अपनी दादी राजमाता विजयाराजे सिंधिया का इतिहास दोहराना चाहते हैं। वैसे वे अपनी दादी का इतिहास दोहरा सकेंगे या नहीं यह तो अभी कहा नहीं जा सकता है।

राजमाता विजयाराजे सिंधिया सागर क्षेत्र के राणा परिवार की बेटी थी, उनके पिता महेन्द्र सिंह ठाकुर जालोन क्षेत्र के डिप्टी कलेक्टर रह चुके थे। अपने पति जीवाजीराव सिंधिया की मृत्यु के पश्चात राजमाता राजनीति में सक्रिय हुई थी। 12 अक्टूबर 1919 को जन्मी राजमाता का निधन 25 जनवरी 2001 को हुआ था। राजमाता 1957 से 1991 तक 8 बार ग्वालियर एवं गुना संसदीय क्षेत्र की सांसद रही राजमाता के बेटे माधव राव सिंधिया कांग्रेस में रहकर सांसद केंद्र सरकार में मंत्री रहे तो उनके निधन के पश्चात उनके पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस के सांसद, केंद्र सरकार में मंत्री भी रहे। पिछला लोकसभा चुनाव पर वे जीत नहीं सके। राजमाता की एक बेटी वसुंधरा राजे केंद्र में मंत्री तथा राजस्थान में मुख्यमंत्री भी रही तो दूसरी बेटी यशोधरा राजे म.प्र. सरकार में मंत्री रह चुकी हैं।

राजमाता विजयाराजे सिंधिया को द्वारिका प्रसाद मिश्र की सरकार गिराने तथा संविद सरकार की स्थापना कराने का श्रेय भी जाता है। दरअसल 1964 में म.प्र. के मुख्यमंत्री बने द्वारिका प्रसाद मिश्र ने मंत्रिमंडल का गठन किया तो उससे विजयाराजे सिंधिया असंतुष्ठ थी वहीं द्वारिका प्रसाद मिश्र द्वारा राजा और राज परिवारों पर की गई टिप्पणी से भी राजमाता नाराज हो गई थीं। दूसरी ओर गोविंद नारायण सिंह की महत्वाकांक्षा भी जोर मार रही थी, सूत्र तो कहते थे कि उस समय राजमाता चाहती थी कि श्यामाचरण शुक्ल दलबदल कर मुख्यमंत्री बने पर वे सहमत नहीं हुए। इधर तब के छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी बृजलाल वर्मा तथा गणेशराम अनंत भी मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किये जाने के कारण नाराज थे। तब छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी विधायकों को तोडऩे में पं. शारदाचरण तिवारी ने भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। उस समय म.प्र. के 35 कांग्रेसी विधायक तोड़ लिये गये थे। कुछ विधायकों को दिल्ली की मैडन्स होटल में ठहराया गया था। 1967 में म.प्र. विधानसभा में दलबदल की यह पहली घटना थी। उस समय दलबदल कानून नहीं था। यह कहा जा सकता है कि न केवल विधानसभा बल्कि राजनीतिक दलों के नैतिक चरित्र की गिरावट यहीं से शुरू हुई। बहरहाल गोविंद नारायण सिंह के बाद छत्तीसगढ़ सारंगढ़ स्टेट के राजा नरेशचंद सिंह मुख्यमंत्री बने वे सरल व्यक्तित्व के थे पर जोड़-तोड़ की राजनीति में पारंगत नहीं थे। 10-12 दिन ही राजा नरेशचंद मुख्यमंत्री रहे पर संविद शासन में असंतोष उबरने लगा। इधर कांग्रेस विधायक दल के नेता पं. श्यामाचरण शुक्ल, विधायकों की कांग्रेस में वापसी के लिए प्रयत्न करते रहे इसी बीच जबलपुर उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र के कसडोल (विधानसभा उपचुनाव में विजयी हुए थे) चुनाव को निर्धारित से अधिक खर्च करने के  नाम पर अवैध घोषित कर मिश्र को 6 साल तक चुनाव लडऩे के लिए अपात्र घोषित कर दिया था। गोविंद नारायण सिंह के नेतृत्व वाली संविद सरकार का पतन, राजा नरेशचंद सिंह के मुख्यमंत्री बनने, विधानसभा में विश्वासमत का सामना करने के पहले इस्तीफा, कांग्रेसी विधायकों की पुन: कांग्रेस में वापसी के बाद पं. श्यामाचरण शुक्ल के मुख्यमंत्री बनने का मार्ग प्रशस्त हो गया। कुल मिलाकर दलबदल, संविद सरकार का गठन, पतन के बाद श्चामाचरण शुक्ल की मुख्यमंत्री के रूप में ताजपोशी के पीछे विजयाराजे सिंधिया की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है।

वैसे इतिहास फिर दोहरा रहा है। राजामाता के बाद माधवराव सिंधिया ने भी कांग्रेस छोड़कर विकास कांग्रेस की स्थापना कर चुनाव लड़ा फिर उनकी कांग्रेस में वापसी हो गई। अब माधव राव सिंधिया के पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी अपनी दादी के नक्शेकदम पर म.प्र. की कमलनाथ सरकार को निपटाने का प्रयास शुरू कर दिया है। उनके समर्थक विधायक बंगलुरू से अपना इस्तीफा भेज चुके हैं। वहीं ज्योतिरादित्य भाजपा की सदस्यता लेकर राज्यसभा के उम्मीदवार के रूप में अपना नामांकन भी दाखिल कर चुके हैं।

राजा, महाराजा का रास पहुंचना तय….

म.प्र. में बतौर कांग्रेसी उम्मीदवार राधोगढ़ के राजा दिग्विजय सिंह तथा ग्वालियर के महाराजा ज्योतिरादित्य सिंधिया का बतौर भाजपा प्रत्याशी राज्यसभा में जाना लगभग तय है। राजा-महाराजा तो रास में चले जाएंगे पर कमलनाथ सरकार के लिए संकट के बादल छोड़ गये हैं। दरअसल सिंधिया को मोदी मंत्रिमंडल में जगह मिलने की भी चर्चा तेज है। सिंधिया अपनी उपेक्षा से नाराज थे वे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनना चाहते थे, राज्यसभा में जाना चाहते थे पर उन्हें दिग्गी -कमलनाथ की जोड़ी से इसकी उम्मीद नहीं थी।

अभी कई पेंच….

म.प्र. में 22 कांग्रेस के विधायकों के इस्तीफे को लेकर कई पेंच है। विधायकों का सामूहिक इस्तीफा एक भाजपा नेता ने लाकर विस अध्यक्ष को सौंपा है इसलिए विस अध्यक्ष ने कुछ पूर्व मंत्रियों तथा विधायकों को नोटिस भी दिया है हो सकता है कि वे व्यक्तिगत तौर पर इस्तीफा देने वाले विधायकों से चर्चा करना पसंद करेंगे। अभी जब विधायकों का इस्तीफा स्वीकृत ही नहीं हुआ है तो कमलनाथ सरकार के अल्पमत में आने का सवाल ही नहीं उठता है। न ही विपक्ष फ्लोर टेस्ट की अभी वैधानिक जरूरत है। ऐसी स्थिति में विधानसभा अध्यक्ष की भूमिका निर्णायक होगी, कानूनविदों के अनुसार अभी राजभवन भी दखल देने की स्थिति में नहीं है। इसलिए 16 से शुरू हो रहे म.प्र. विधानसभा सत्र (हालांकि कोरोना वायरस के चलते सत्र के कुछ स्थगित होने की भी संभावना है)में राज्यपाल का अभिभाषण होना भी संभव है। फिर बंगलुरू में विधायकों से मिलने गये एक मंत्री जीतू पटवारी से पुलिसिया दुव्र्यवहार एक विधायक चौधरी से उनके पिता, भाई से मुलाकात नहीं करने देने का मामला, विधायकों को बंधक बनाने का आरोप आदि को लेकर न्यायालय भी जाने का रास्ता खुला है। कुल मिलाकर म.प्र. का राजनीतिक संकट इतने जल्दी ही सुलझ जाएगा ऐसा लगता नहीं हैं क्योंकि दिग्विजय और कमलनाथ राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ी हैं।

बस्तर के रथ बने थे ओडि़सा कोटे से रास सदस्य…..

कांग्रेस ने बस्तर में जन्मी फूलोदेवी नेताम को इस बार राज्यसभा प्रत्याशी बनाया है उनका चुना जाना तय माना जा रहा है। इसके पहले कांकेर लोस के निवासी आदिवासी नेता स्व. झुमुकलाल भेडिय़ा भी कांग्रेस से राज्यसभा सदस्य रह चुके हैं। वैसे बस्तर के लेखक, वक्ता, राजनीतिज्ञ अभिमन्यु रथ को ओडि़सा कोटे से राज्यसभा सदस्य चुना गया था वे 3 अप्रैल 56 से 2 अप्रैल 62 तक राज्यसभा सदस्य चुने गये थे। उन्होंने 1952-56 तक बस्तर को ओडि़सा में मिलाने एक असफल आंदोलन चलाया था और वे सफल तो नहीं हो सके पर उन्हें तत्कालीन ओडि़सा सरकार ने पुरस्कार स्वरूप रास की सदस्यता दिलाई थी। 1952 के आम चुनाव में ओडि़सा (तब उड़ीसा) एक ऐसा राज्य था जहां कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला था। उसे गणतंत्र परिषद (राजाओं, जमींदारों की पार्टी) के साथ मिलकर सरकार बनाना पड़ा था। उस सरकार के मुख्यमंत्री बने थे डॉ. हरेकृष्ण मेहताब। वे उत्कल संस्कृति से प्रभावित होकर आंध्रप्रदेश के कुछ क्षेत्र, बस्तर को भी उड़ीसा में मिलाकर सर्वांगीण विकास के पक्षधर थे। वे चाहते थे कि बस्तर के भीतर से उड़ीसा में शामिल होने की आवाज उटे और राज्य पुनर्गठन आयोग के समक्ष दमदारी से मामला जाए। इसके लिए उन्होंने जगदलपुर के अभिमन्यु रथ को चुना था। रथ ने बस्तर के पूर्वी अंचल के भतरा आदिवासियों को पकड़ा, उनकी भाषा संस्कृति भी उड़ीसा वालों से मेल खाती थी। उन्होंने हजारों लोगों के हस्ताक्षर युक्त ज्ञापन भी पुनर्गठन आयोग के अध्यक्ष सैय्यद फजल अली को सौंपा भी था। जब यह खबर सीपी एण्ड बरार के मुख्यमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल को मिली उन्होंने अपने मित्र सुंदर लाल त्रिपाठी को इसके खिलाफ खड़ा किया। बस्तर को उड़ीसा में शामिल करने रैली निकाली विरोध भी हुआ। तब प्रसिद्ध उपन्यासकार शानी ने ‘कस्तूरी’ में लिखा भी था, हम बस्तर में है तो सरकार हमे कौन से लड्डू खिला रही है उड़ीसा में रहेंगे तो कौन से कड़ाही में तले जाएंगे। बहरहाल बाद में यह मामला तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू तक पहुंचा और बस्तर, उड़ीसा में जाने से बाल बाल बच गया…। बाद में अभिमन्यु रथ के प्रयास के मद्देनजर उन्हें उड़ीसा कोटे से राज्यसभा सदस्य बनाया गया। बाद में नगरपालिका पार्षद भी बने। कुछ वर्षों पूर्व उनका रायपुर रेलवे स्टेशन में हृदयघात से निधन हो गया। उनके परिजन अभी भी जगदलपुर में रहते हैं।

और अब बस…..

  • 0 केंद्रीय नेतृत्व के दखल से छग से राज्यसभा के लिए वरिष्ठ अधिवक्ता के.टी.एस. तुलसी एवं फूलो देवी नेताम को कांग्रेस ने प्रत्याशी बनाया है। इससे गिरीश देवांगन मायूस हैं क्योंकि उन्हें तो कुछ दिनों से फेसबुक में राज्यसभा सदस्य की बधाई भी मिलना शुरु हो गई थी।
  • 0 विधानसभा सत्र के बाद निगम मंडलों में नियुक्ति का दौर शुरू होने की संभावना है।
  • 0 पुलिस मुख्यालय में कुछ बड़े फेरबदल की अटकलें तेज हैं।
  • 0 छाया वर्मा के बाद फूलोदेवी भी राज्यसभा सदस्य हो जाएंगी पहले 12 सालों तक मोहसिना किंदवई भी रास सदस्य रही।
  • 0 मोतीलाल वोरा की सक्रिय राजनीतिक पारी अधिक उम्र के चलते समाप्त सी हो गई है।