पत्रकारों के लिए नुकसान साबित हो सकता हैं ये सरकारी कदम, NEWSPAPER इम्प्लाइज यूनियन ने प्रेसिडेंट को लिखा लेटर.. आप भी पढ़िए..

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नई दिल्ली 10 अगस्त, 2019। पत्रकारों का आरोप है कि केंद्र सरकार श्रम कानूनों में सुधार के नाम पर वर्किंग जर्नलिस्‍ट एक्‍ट को समाप्‍त करने जा रही है। पत्रकारों का कहना है कि यदि ये एक्‍ट ही खत्‍म हो जाएगा तो अखबार मालिक और अधिक निरंकुश हो जाएंगे। इसका नतीजा व्‍यापक पैमाने पर शोषण और जब चाहे नौकरी से निकालने के रूप में देखने को मिलेगा। धर्मशाला से न्‍यूजपेपर इम्‍प्‍लाइज यूनियन ऑफ इंडिया के अद्यक्ष रविंद्र अग्रवाल ने इस संबंध में राष्‍ट्रपति, पीएम और श्रम मंत्री को एक विरोध पत्र लिखा है।

NEWSPAPER इम्‍प्‍लाइज यूनियन ने प्रेसिडेंट को लिखा लेटर.. आप भी पढ़िए..

प्रतिष्‍ठा में,

महामहिम राष्‍ट्रपति महोदय, भारत गणराज्‍य,  नई दिल्‍ली।

विषय: श्रमजीवी पत्रकार और अन्‍य समाचारपत्र कर्मचारी (सेवा की शर्तें) और प्रकीर्ण उपबंध अधिनियम,1955 तथा श्रमजीवी पत्रकार (मजदूरी की दरों का निर्धारण) अधिनियम, 1958 को निरस्‍त करने का विरोध और चिंताएं।

मान्‍यवर,

केंद्र सरकार ने 23 जुलाई को लोकसभा में व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्य स्थिति को विनियमित करने वाले कानूनों में संशोधन करने के लिए व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्य स्थिति संहिता विधेयक, 2019 प्रस्‍तुत किया है। इसमें श्रमजीवी पत्रकार और अन्‍य समाचारपत्र कर्मचारी (सेवा की शर्तें) और प्रकीर्ण उपबंध अधिनियम,1955 तथा श्रमजीवी पत्रकार (मजदूरी की दरों का निर्धारण) अधिनियम, 1958 को निरस्‍त किए जाने वाले 13 श्रम कानूनों में शामिल किया गया है, जो लोकतंत्र के चौथे स्‍तंभ के साथ कुठाराघात है।

देश के श्रमजीवी पत्रकारों और समाचारपत्र स्‍थापनाओं में कार्य करने वाले अन्‍य कर्मचारियों के वेतन और सेवाशर्तौं से जुड़े उपरोक्‍त दोनों अधिनियमों के विशेष प्रावधानों के कारण श्रमजीवी पत्रकारों और अन्‍य समाचारपत्र कर्मचारियों को वेजबोर्ड का संरक्षण प्राप्‍त है।

महोदय, उपरोक्‍त दोनों अधिनियम तत्‍कालीन केंद्र सरकार ने प्रेस कमीशन की सिफारिशों और विभिन्‍न जांच समीतियों की रिपोर्टों को ध्‍यान में रखते हुए बनाए थे। वर्ष 1955 में श्रमजीवी पत्रकारों के लिए बनाए गए श्रमजीवी पत्रकार अधिनयम को और मजबूत करते हुए वर्ष 1974 को किए गए संशोधन के तहत इसमें समाचार पत्रों में कार्यरत अन्‍य कर्मचारियों को भी शामिल किया गया था।

ये दोनों अधिनियम श्रमजीवी पत्रकारों और अन्‍य अखबार कर्मचारियों को बाकी श्रमिकों से अलग विशेष संरक्षण देते हैं और सही मायने में लोकतंत्र का चौथा स्‍तंभ होने में भूमिका निभा पाने का माहौल मुहैया करवाने में मदद करते हैं। इन अधिनियमों की खास बात यह है कि इनके तहत वेतनमान निर्धारण के लिए वेजबोर्ड का प्रावधान होने के चलते श्रमजीवी पत्रकार और अन्‍य अखबार कर्मचारी लोकतंत्र के बाकी तीन स्‍तंभों के समान ही एक सम्‍मानजनक वेतनमान पाने के हकदार बनते हैं।

हालांकि सच्चाई यह भी है कि वर्ष 1956 में गठित प्रथम वेजबोर्ड (दिवतिया वेजबोर्ड) से लेकर पिछली बार वर्ष 2007 को गठित वेजबोर्ड (मजीठिया वेजबोर्ड) को अखबार मालिकों ने कभी भी अपनी मर्जी से लागू नहीं किया और हर बार इन वेजबोर्डों सहित उपरोक्‍त अधिनियमों के प्रावधानों की वैधानिकता को माननीय सुप्रीम कोर्ट में चनौती दी गई। अखबार मालिकों के कुटिल प्रयासों के बावजूद श्रमजीवी पत्रकार और अखबार कर्मचारी अपनी यूनियनों और विभिन्‍न संगठनों के दम पर कानूनी लड़ाई जीतते रहे।

यहां खास बात यह है कि माननीय सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठों ने वेजबोर्ड और उपरोक्‍त अधिनियमों को संविधान संवत मानते हुए वेजबोर्ड को उचित ठहराया है। अब तक किए गए दर्जनों मुकद्दमों में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने अपने पूर्ववर्ती निर्णयों को विशेष टिप्‍पणियों के साथ कायम रखा है। ऐसे में इन विशेष अधिनियमों को निरस्‍त करने का निर्णय समझ से परे है। इस संबंध में कुछ महत्‍वपूर्ण तथ्‍य इस प्रकार से हैं:-

देश के स्‍वतंत्र होते ही शुरू हुआ था चिंतन

महोदय, देश के आजाद होते ही लोकतंत्र के इस चौथे स्‍तंभ की निष्‍पक्षता और स्‍वतंत्रता को लेकर चिंतन शुरू हो गया था। पहले जहां अखबारों का प्रकाशन और संचालन व्‍यक्‍तिगत तौर पर समाज चिंतक, देश की स्‍वतंत्रता के आंदोलन में शामिल सेनानी और प्रबुध पत्रकार करते थे। आजादी के बाद जैसे ही पूंजीपतियों या औद्योगपतियों ने अखबारों को व्‍यवसाय के तौर पर संचालित करना शुरू किया तभी से पत्रकारों के वेतनमान, काम के घंटों और बाकी श्रमिकों से अलग विशेषाधिकार देने की मांग उठना शुरू हो गई।

इसे देखते हुए पहली बार वर्ष 1947 में गठित एक जांच समिति ने सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी, फिर 27 मार्च 1948 को ब्रिटिश इंडिया के केंद्रीय प्रांत और बेरार ( Central Provinces and Berar) ने समाचारपत्र उद्योग के कामकाज की जांच के लिए गठित जांच समिति ने सुझाव दिए और 14 जुलाई 1954 को भारत सरकार द्वारा गठित प्रेस कमीशन ने अपनी विस्‍तृत रिपोर्ट दी थी। इसके अलावा एक अप्रैल 1948 को जिनेवा प्रेस एसोसिएशन और जिनेवा यूनियन आफ न्‍यूजपेपर पब्‍लिशर्ज ने 01 अप्रैल 1948 को एक संयुक्‍त समझौता किया था।

इस तरह एक व्‍यापक जांच और रिपोर्टों के आधार पर तत्‍कालीन भारत सरकार ने श्रमजीवी पत्रकार और अन्‍य समाचारपत्र कर्मचारी (सेवा की शर्तें) और प्रकीर्ण उपबंध अधिनियम,1955 तथा श्रमजीवी पत्रकार (मजदूरी की दरों का निर्धारण) अधिनियम, 1958 को लागू किया था। इतना ही नहीं भारत के संविधान के अनुच्‍छेद 43 ( राज्‍य की नीति के निदेशक तत्‍व) के तहत भी उपरोक्‍त दोनों अधिनयम संवैधानिक वैधता रखते हैं।

अधिनियमों को और अधिक मजबूत करने की जरूरत

महोदय, मौजूदा परिस्‍थितियों में जबकि प्रिंट मीडिया को चुनौती देने के लिए इलेक्‍ट्रानिक मीडिया और वेब मीडिया दस्‍तक दे चुका है तो ऐसे में उपरोक्‍त अधिनयमों को और सशक्‍त बनाने की जरूरत है। श्रमजीवी पत्रकार और गैर-पत्रकार अखबार कर्मचारियों के संगठन लंबे अर्से से इन अधिनियमों में इलेक्‍ट्रानिक मीडिया और वेब मीडिया में काम करने वाले श्रमजीवी पत्रकारों और गैरपत्रकार कर्मचारियों को भी शामिल करने की मांग करते आ रहे हैं। वहीं इन अधिनियमों के उल्‍लंघन पर सख्‍त प्रावधान करने की भी जरूरत है।

महज सौ या दो सौ रुपए जुर्माना करने के प्रावधन के बजाय भारी जुर्माना राशि, करावास की सजा और पीड़ित कामगार को हर्जाने की व्‍यवस्‍था करना जरूरी माना जा रहा था। वहीं श्रमजीवी पत्रकारों की ठेके पर नियुक्‍तियों पर रोकना भी जरूरी समझा जा रहा था। ऐसे में अधिनियमों को सशक्‍त बनाने के बजाय समाप्‍त करने का निर्णय केंद्र सरकार के खिलाफ रोष और चिंता उत्‍पन्‍न कर रहा है।

आम मजदूर से अलग है अखबार कर्मचारी

महोदय, अखबारों में कार्यरत श्रमजीवी पत्रकार और अन्‍य कमर्चारी आम मजदूरों से अलग परिस्‍थितियों में कम करते हैं। माननीय सुप्रीम कोर्ट ने 07 फरवरी, 2014 को अखबार मालिकों की याचिकाओं पर सुनाए गए अपने फैसले में भी इस बात का स्‍पष्‍ट उल्‍लेख किया है कि अखबार कर्मचारियों को आम श्रमिकों से अलग परिस्‍थितियों, खास विशेषज्ञता और उच्‍च दर्जें के प्रशिक्षण के साथ काम करना पड़ता है। ऐसे में उन्‍हें वेजबोर्ड की सुरक्षा के साथ ही इस बात का भी ख्‍याल रखना जरूरी है कि समाज की दिशा और दशा तय करने वाले पत्रकारिता के व्‍यवसाय से जुड़े श्रमजीवी पत्रकारों और अन्‍य अखबार कर्मचारियों की जीवन शैली कम वेतनमान के कारण प्रभावित ना होने पाए।

मजीठिया वेजबोर्ड के हजारों मामले श्रम न्‍यायालयों में विचाराधीन

महोदय, केंद्र सरकार द्वारा 11 नंवबर, 2011 को अधिसूचित मजीठिया वेजबोर्ड को लागू करवाने के लिए देशभर के हजारों श्रमजीवी पत्रकार और गैरपत्रकार अखबार कर्मचारी संघर्षरत हैं। इस वेजबोर्ड और उपरोक्‍त अधिनियमों को भी अखबार मालिकों ने (एबीपी प्राइवेट लिमिटेड व अन्‍य बनाम भारत सरकार व अन्‍य मामले में) संगठित तरीके से चुनौती दी थी, मगर वे इसमें कामयाब नहीं हो पाए।

इस मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने 07 फरवरी, 2014 को सुनाए गए अपने फैसले में मजीठिया वेजबोर्ड को लागू करने और 01 अप्रैल, 2014 से एक साल के भीतर चार किश्‍तों में देय एरियर का भुगतान करने के आदेश दिए थे। अखबार मालिकों ने ऐसा करने के बजाय सभी कर्मचारियों से वेतनमान ना लेने के बारे में जबरन हस्‍ताक्षर करवाना शुरू कर दिए और जिन कर्मचारियों ने हस्‍ताक्षर करने से इनकार किया उन्‍हें नौकरी से हटा दिया गया। हजारों की नौकरी चली गई और उन्‍होंने माननीय सुप्रीम कोर्ट में (अभिषेक गुप्‍ता व अन्‍य बनाम संजय गुप्‍ता मामले में) अवमानना याचिकाएं दाखिल कीं।

इस मामले में कोर्ट ने 19 जून 2017 को फैसला सुनाते हुए अखबार मालिकों को अवमानना से तो बरी कर दिया, मगर कुछ दिशानिर्देश जारी करते हुए श्रम न्‍यायालयों को बकाया वेतन की रिकवरी के मामलों पर छह माह में निर्णय लेने को कहा है। हजारों मामले अभी भी श्रम न्‍यायालयों में लंबित चल रहे हैं। वहीं राज्‍य सरकारें अभी तक मजीठिया वेजबोर्ड को लागू करवाने के मामले में नकारा साबित हुई हैं। केंद्रीय श्रम विभाग महज बैठकें करने और दिशानिर्देंश देने तक सीमित है।

फिलहाल बेरोजगार हो चुके हजारों अखबार कर्मचारी निरस्‍त किए जा रहे उपरोक्‍त अधिनियमों के सहारे ही अपनी अपनी लड़ाई जारी रखे हुए हैं। वर्ष 1955 में बने इस अधिनियम का इतने व्‍यापक स्‍तर पर पहली बार न्‍याय निर्णय के लिए उपयोग हो रहा है तो ऐसे में इसे निरस्‍त करने का प्रयास श्रमजीवी पत्रकारों और अन्‍य अखबार कर्मचारियों के अधिकारों पर जबरदस्‍त कुठाराघात होगा।

ऐसे तो ध्‍वस्‍त हो जाएगा चौथ स्‍तंभ

महोदय, उपरोक्‍त दोनों अधिनियमों को निरस्‍त करके श्रमिकों के लिए बनाए गए नए अधिनियम के ड्राफ्ट में सिर्फ तीन धाराएं शामिल करने से श्रमजीवी पत्रकारों और अन्‍य अखबार कर्मचारियों की हालत और दयनीय हो जाएगी। न्‍यूजपेपर इंडस्‍ट्री अब मिशन पत्रकारिता को रौंद कर टारगेट आधारित इंडस्‍ट्री में तब्‍दील हो चुकी है। समाचारपत्रों में मालिकों और पत्रकारों के बीच की मजबूत दीवार कही जाने वाले संपादकों की संस्‍था पहले ही ध्‍वस्‍त हो चुकी है। अखबार कर्मचारियों विशेषकर श्रमजीवी पत्रकारों की पैरवी करने वाला कोई नहीं रहा है। संपादक अब कांटेंट से हटकर कांट्रेक्‍ट के काम में व्‍यस्‍त हैं और मालिकों के मैनेजर का काम करने लगे हैं।

अखबार कार्यालयों में लाभ-हानि के आंकड़े जुटाने वाले मैनेजरों का कब्‍जा होता जा रहा है। अधिकतर अखबार मालिक अब सीधे खबरों को विज्ञापन के साथ तौल कर प्‍लानिंग करने लगे हैं। हाल ही के चुनावों में बड़े-बड़े अखबारों के मालिकों को राजनीतिक दलों से पेड न्‍यूज प्‍लान करते कैमरे पर पकड़े जाने की खबरें अगर केंद्र सरकार के नीति निर्धारकों तक नहीं पहुंच पा रही हैं तो भारत की पत्रकारिता गंभीर संकट में है। वहीं प्रेस की स्‍वतंत्रता को और भी ज्‍यादा खतरा है, क्‍योंकि प्रेस की आजादी अखबार मालिकों के मुनाफा कमाने की आजादी से कहीं उस पत्रकार की आजादी से है, जो उचित वेतनमान और कानूनी तौर पर संरक्षित माहौल मिलने पर ही स्‍वतंत्र और निष्‍पक्ष होकर सही जानकारी आम जनता तक परोस सकता है। ऐसे में लोकतंत्र का चौथा स्‍तंभ ध्‍वस्‍त होने से तभी बचेगा, जब उपरोक्‍त कानूनों को निरस्‍त करने के बजाय इन्‍हें और मजबूती प्रदान की जाएगी।

अखबार मालिकों की चाल में ना आए सरकार

महोदय, उपरोक्‍त निर्णय से अखबार कर्मचारियों में आशंका है कि अखबार मालिक संगठित होकर सरकार को गुमराह कर रहे हैं और कहीं ना कहीं उपरोक्‍त अधिनियमों को निरस्‍त करवाने में इनकी चाल हो सकती है। निवेदन है कि इस मामले में अपने स्‍तर पर जांच करवा कर इस तरह की कोशिश पर विराम लगाया जाए और पत्रकार और गैरपत्रकार अखबार कर्मचारियों के संगठनों की मांगों के अनुरूप इन अधिनियमों में उपयुक्‍त संशोधन करके इन्‍हें और सशक्‍त बनाया जाए।

आदर सहित

भवदीय

रविंद्र अग्रवाल अध्‍यक्ष, (न्‍यूजपेपर इम्‍प्‍लाइज यूनियन ऑफ इंडिया)

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