चचेरे-ममेरे भाई-बहनों के बीच शादी को लेकर क्या कहते हैं हमारे धर्मग्रंथ……

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लाइफ स्टाइल, 17 दिसम्बर 2021। कई बार लोग तर्क देते हैं कि धर्मों में वैज्ञानिकता है, धर्मवेत्ताओं को पता था कि सगे-संबंधों में शादी करने से होने वाले बच्चे सामान्य बच्चों की तुलना में जेनेटिकली कमज़ोर हो सकते हैं. इस पर हम कोई टिप्पणी नहीं कर रहे. हालांकि, हमने विज्ञान के रास्ते इसे समझने की कोशिश की है. और इस पार्ट में आपको यही एंगल मिलेगा. यानी साइंस का एंगल.

तो सवाल है कि क्या ब्लड रिलेशन (Blood Relation) में शादी से बच्चे जेनेटिकली कमजोर या बीमार पैदा होते हैं? इसे समझने से पहले ये जानना ज़रूरी है कि ये जीन, DNA और गुणसूत्र वगैरह क्या होता है.

जीन और डीएनए का रिश्ता

कभी-कभी किसी व्यक्ति की बुरी आदत के लिए लोग उसे टोकते हैं. तो उसके पुरखों तक को लपेट लेते हैं. कहते हैं- तुम्हारा तो DNA ही ख़राब है. क्या ये कहना सही है?

DNA एक द्विसूत्रीय संरचना है. बायोलॉजी की किताबों से लेकर फिल्मों तक में आपने इसका स्ट्रक्चर देखा होगा. ये DNA हर जीवित प्राणी में पाया जाता है. तो फिर जीन क्या है? जीन और DNA अलग नहीं हैं. फर्क ये है कि हर जीन, DNA होता है, लेकिन हर DNA, जीन नहीं होता. कैसे?

हमारे या किसी भी जीव के शरीर में सबसे छोटी चीज़ होती है- सेल, यानी कोशिका. इनमें पाया जाता है न्यूक्लियस. इसी न्यूक्लियस में सामान्यतः 23 जोड़े क्रोमोजोम के पाए जाते हैं. यानी टोटल 46. इन्हीं क्रोमोजोम पर DNA लिपटा रहता है. लेकिन इन DNA में ही कुछ डीएनए ऐसे होते हैं, जो पहले mRNA और फिर प्रोटीन बनाते हैं. और इन्हीं प्रोटीन बनाने वाले DNA को कहा जाता है- ‘जीन’. हालांकि मेंडेल ने इसे जीन नाम नहीं दिया था, बस ये कहा था कि ये प्रोटीन ही लक्षण तय करते हैं. सही भी है क्योंकि यही प्रोटीन सेल-डिवीज़न के लिए ज़िम्मेदार होते हैं. अब जैसी सेल डिवीज़न, वैसी ही बॉडी ऑर्गन्स की ग्रोथ, और वैसी ही शारीरिक बनावट. और ये सेल डिवीज़न प्रायः पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक जैसा रहता है.

तो साफ़ है कि इन्हीं प्रोटीन बनाने वाले DNA यानी जींस में हमारी आनुवांशिक विशेषताओं की इनफार्मेशन होती है. जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में फ्लो करती है. हमारी अगली पीढ़ी में बाल किस रंग के होंगे, रेटिना का कलर क्या होगा और सबसे ख़ास बात कि उन्हें बीमारियां कौन-सी हो सकती हैं, ये सब इसी जीन और उसके पीढ़ी-दर-पीढ़ी जेनेटिक फ्लो से तय होता है.

जेनेटिक फ्लो का रेश्यो

ब्लड लाइन में पीढ़ी-दर-पीढ़ी जींस के साझा होने का रेश्यो क्या है. इसके पीछे बहुत जटिल जेनेटिक स्टडी है. आसान भाषा में इसे यूं समझिए कि एक ही ब्लड लाइन के किन्हीं दो व्यक्तियों में कॉन्सैन्ग्विनिटी(Consaguinity) यानी रक्त संबंध का परसेंटेज हर पीढ़ी में चार गुना तक कम हो जाता है. उल्टा कहें तो फ़र्स्ट कज़न्स में सेकंड कज़न्स की तुलना में चार गुना ज्यादा कॉन्सैन्ग्विनिटी होती है. वहीं फर्स्ट कज़न्स वन्स रिमूव्ड यानी आपकी बुआ या चाचा से आपकी जो कॉन्सैन्ग्विनिटी है, वो आपके फर्स्ट-कज़न्स(First- Cousin) यानी चाचा के बेटे से आपकी कॉन्सैन्ग्विनिटी की तुलना में आधी होती है. डबल फर्स्ट कज़न्स यानी अगर सगे भाई-बहन के एक जोड़े ने दूसरे सगे भाई-बहन के जोड़े से शादी की हो तो उनके बच्चे आपस में डबल फर्स्ट कज़न्स कहलाएंगे, और ऐसे बच्चों में रक्त संबंध फर्स्ट कज़न्स से भी दोगुना होता है. ये तो है पीढ़ी-दर-पीढ़ी जेनेटिक फ्लो के अनुपात की जानकारी, अब आते हैं मुख्य सवाल पर कि कज़न-मैरिज से जेनेटिक स्तर पर दिक्कतें होती क्यों हैं?

ऑटोसोमल रेसेसिव जेनेटिक डिसऑर्डर

प्रोटीन वाला DNA यानी जीन द्विसूत्रीय होता है, जिसमें एक हिस्सा डिजीज-म्यूटेटेड यानी बीमारी वाला हो सकता है. यानी ये जीन बीमार कर भी सकता है और नहीं भी. जब यह डिजीज म्यूटेटेड हिस्सा किसी को बीमार करता है, तब इसे ऑटोसोमल डोमिनेंट डिसऑर्डर कहते हैं. उदाहरण के लिए डायबिटीज को ले लीजिए. चूंकि टाइप-2 डायबिटीज हेरिटेज में चलने वाली बीमारी है, तो मान लीजिए अगर किसी में डायबिटीज वाला जीन हो तो संभावना रहेगी कि उसे या उसकी अगली पीढ़ी में भी किसी को डायबिटीज हो जाए. बीमारी नहीं भी हुई, लेकिन बीमारी वाला जीन तो शरीर में है ही. जाहिर है कि ब्लड-लाइन में जेनेटिक फ्लो के चलते, ये डिजीज म्यूटेटेड जीन इसी ब्लड-लाइन के किसी भी दूसरे व्यक्ति में हो सकता है.

Dailymail की एक रिपोर्ट के मुताबिक कज़न-कपल में एक जैसा डिजीज म्यूटेटेड जीन पाए जाने की संभावना, नॉन कज़न-कपल की तुलना में सौ गुनी तक हो सकती है. ऐसे में इन कपल्स की होने वाली संतान में जीन साझा होकर पहुंचेगे. और बीमारी वाले जींस के साझा होने यानी म्यूटेटेड जींस की दो कॉपीज़ पहुंचने से बीमारी एक्टिव हो सकती है. और तब इस बीमारी को ऑटोसोमल रेसेसिव जेनेटिक डिसऑर्डर कहते हैं.

स्टडीज क्या कहती हैं?

कज़न-मैरिज में आनुवंशिक पहलू हमेशा चर्चा का विषय रहा है. सैकड़ों स्टडीज की गई हैं, पढ़ना चाहें तो जर्नल ऑफ़ मेडिकल जेनेटिक्स पर जाकर डिटेल में ज्ञान ले सकते हैं.जिनसे कई तरह के निष्कर्ष निकलकर आते हैं. जिन्हें हम संक्षिप्त में आपको बताए देते हैं.

जर्नल ऑफ़ जेनेटिक काउंसिल की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ नॉन कज़न-कपल्स के बच्चों की तुलना में कज़न-कपल्स के बच्चों में बर्थ-डिफेक्ट 1 से 2 परसेंट तक ज्यादा रहता है. यानी 3% की तुलना में क़रीब 4 से 5 फ़ीसद तक. वहीं 1994 की एक स्टडी के मुताबिक़ कज़न-कपल्स के नवजात बच्चों की मृत्यु दर करीब 4.4% ज्यादा होती है. 2009 की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ बर्थ डिफेक्ट और मोर्टेलिटी में ये अंतर लगभग उतना ही है, जितना 40 साल की महिलाओं के बच्चों की मृत्यु दर और 30 साल की महिलाओं के बच्चों की मृत्यु दर में है. ज्यादा उम्र की महिलाओं के साथ क्या रिप्रोडक्टरी समस्याएं होती हैं, इस पर फिर कभी विस्तार से बात करेंगे.

भारत में की गई रिसर्च

लक्ष्मैया नायडू, जो कि मुरादाबाद के एक हॉस्पिटल रिसर्च सेंटर में प्रोफेसर हैं, उन्होंने जेनेटिक डिसऑर्डर्स से जूझ रहे कुछ मरीजों पर एक स्टडी की. इनमें से 200 मरीज़ ऐसे थे, जिनकी कज़न-मैरिज की हिस्ट्री रही थी. और इन 200 मरीजों की मेडिकल कंडीशन को जब केटेगराइज़ किया गया, तो आंकड़े डराने वाले थे. करीब 66 मरीज़ों में कार्डियोवैस्कुलर, पल्मोनरी या रीनल डिसऑर्डर्स थे. यानी दिल, फेफड़े और गुर्दों से जुडी हुई बीमारियां. करीब 56 मरीजों में ओरोफेशियल मैनीफेस्टेशंस थे, यानी चेहरे और बाहरी त्वचा से जुड़ी हुई दिक्कतें और इसी तरह 15 मरीज़ों में क्रेनियोफेशियल सिंड्रोम यानी चेहरे की विकृतियां थीं.

इसी तरह साउथ इंडिया में जहां कज़न-मैरिज का परसेंटेज ज्यादा है, वहां भी करीब कज़न-मैरिज से हुए 400 नवजात शिशुओं और बच्चों पर एक स्टडी की गई. इनमें से 63 बच्चों में 35 तरह के जेनेटिक डिसऑर्डर्स थे. और सबसे बड़ी बात ये कि ऑटोसोमल रेसेसिव डिसऑर्डर्स सबसे ज्यादा बच्चों में देखे गए. यानी पेरेंट्स के जींस के साझा होने के चलते बच्चों में जींस की डबल कॉपीज़ आने के कारण होने वाले डिसऑर्डर सबसे ज्यादा थे.

रिपीटेड कज़न-मैरिज

रिपीटेड कॉन्सैन्ग्वीनियस मैरिज, यानी एक ही ब्लड लाइन में बार-बार शादियों के मामले में जेनेटिक दिक्कतें और भी ज्यादा हैं. मसलन पाकिस्तान में जहां पीढ़ियों से कज़न-मैरिज होती आ रही हैं, वहां डबल-फर्स्ट कज़न्स के बच्चों का मोर्टेलिटी रेट 13 और फर्स्ट कज़न मैरीड कपल्स के बच्चों का मोर्टेलिटी रेट करीब 8 परसेंट है, जबकि नॉन-कज़न कपल्स के बच्चों की मृत्यु दर करीब 5 फ़ीसद है. इस अंतर की वजह ये कि रिपीटेड कजिन मैरिज के चलते जींस पीढ़ियों से शफल नहीं हो रहे, बल्कि जेनेटिक रिलेशनशिप और ज्यादा क्लोज होती जा रही है. और इस क्लोजनेस के चलते बीमारी वाले जींस भी ज्यादा प्रभावी हैं.

पाकिस्तान का उदाहरण

इसी तरह बीबीसी की एक रिपोर्ट में ब्रिटेन में रहने वाले पाकिस्तानियों पर भी एक स्टडी दी गई है. इनमें से करीब 55 फीसदी लोगों ने फर्स्ट-कज़न-मैरिज की थी. इनसे होने वाली संतानें ज्यादातर रिपीटेड कज़न-मैरिज से हुई थीं. रिपोर्ट कहती है कि इन बच्चों में सामान्य बच्चों की तुलना में करीब 13 गुना ज्यादा जेनेटिक डिसऑर्डर्स देखे गए. बीबीसी ये भी कहता है कि पाकिस्तानी ब्रिटिश बच्चों की संख्या, कुल ब्रिटिश बच्चों की संख्या का सिर्फ तीन फ़ीसदी है, जबकि जेनेटिक डिसऑर्डर वाले कुल ब्रिटिश बच्चों का लगभग एक तिहाई इन्हीं पाकिस्तानी-ब्रिटिश बच्चों से पूरा हो जाता है. इन बच्चों की मृत्यु-दर भी बाकी ब्रिटिश बच्चों की तुलना में ज्यादा है.

बीबीसी की इस स्टोरी में एक इंटरव्यू भी शामिल है. माइरा अली का. जिनके पेरेंट्स और ग्रैंडपेरेंट्स ने फर्स्ट-कज़न मैरिज की थी. माइरा को एक बहुत रेयर रेसेसिव जेनेटिक डिसऑर्डर था- एपीडेर्मोलिसिस बुलोसा. जिसके चलते उन्हें बहुत दिक्कतें उठानी पड़ीं, और बाद में स्किन कैंसर भी हो गया. माइरा इस सबके चलते फ़र्स्ट-कजिन मैरिज के खिलाफ़ थीं. 2010 में टेलीग्राफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ ब्रिटिश पाकिस्तानियों में कज़न मैरिज के चलते हर साल 700 बच्चे जेनेटिक डिसेबिलिटीज़ के साथ पैदा होते हैं.

हालांकि, UK के ह्यूमन जेनेटिक्स कमीशन के एक स्टेटमेंट के मुताबिक़ बीबीसी इस बात को स्पष्ट करने में असफल है कि पाकिस्तानी ब्रिटिश बच्चे 13 गुना ज्यादा जेनेटिक डिसऑर्डर वाले हैं, लेकिन रेसेसिव जेनेटिक डिसऑर्डर (यानी वो डिसऑर्डर जो उनके मां-बाप के जींस की कॉपीज़ के चलते हुए) के मामले में सामान्य बच्चों की तुलना में 13 गुना ज्यादा वाली BBC की संभावना सही है. HGC ये भी कहता है कि क्रोमोसोमल डिसऑर्डर, सेक्स-लिंक्ड कंडीशंस और ऑटोसोमल डोमिनेंट कंडीशंस का लेना-देना कज़न मैरिज से नहीं है.

नार्थ अमेरिका का उदाहरण

यहां एक और उदाहरण है- नार्थ अमेरिका का एक क्रिस्चियन ग्रुप ‘एमिश’(Amish. ) ये लोग मूल रूप से जर्मन स्विस लोग थे. जिनकी तादात वक़्त के साथ कुछ सैकड़ा से बढ़कर करीब 3 लाख हो गई. हालांकि एमिश लोगों में फ़र्स्ट कज़न मैरिज एक टैबू माना जाता है, लेकिन किन्हीं दो एमिश सेकंड कज़न्स के बीच का एवरेज इन्ब्रीडिंग कॉफिशिएन्ट किन्हीं दो नॉन-एमिश सेकंड कज़न्स की तुलना में काफ़ी ज्यादा है और ये लोग कई रेयर जेनेटिक डिसऑर्डर्स से जूझ रहे हैं. अमेरिका के ओहियो प्रांत में एमिश पापुलेशन वहां की कुल आबादी की सिर्फ़ दस फ़ीसद है, लेकिन यहां आधे से ज्यादा स्पेशल नीड केसेज़ इन्हीं एमिश लोगों के हैं.

पाकिस्तान के मुस्लिमों और अमेरिका के एमिश लोगों के उदाहरण से साफ़ हो जाता है कि रिपीटेड कज़न-मैरिज के चलते जीन शफल न हो पाना भी जेनेटिक रेसेसिव डिसऑर्डर्स की वजह है.

अरब देशों में जो कपल शादी करने के इच्छुक होते हैं, उन्हें एडवांस जेनेटिक स्क्रीनिंग करवानी होती है. कतर आख़िरी गल्फ़ कंट्री थी, जिसने 2009 में स्क्रीनिंग को मैंडेटरी कर दिया. यहां खास तौर पर वो कपल्स जो पहले से रिलेटेड हैं, उन्हें स्क्रीनिंग करवानी होती है. ऐसा इसलिए कि क़तर में कज़न मैरिज का करेंट रेट 54% है, पिछली पीढ़ी की तुलना में करीब 15 फ़ीसद ज्यादा. दुबई के ‘सेंटर फॉर अरब जीनोमिक स्टडीज’ (CAGS) की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ अरबों में आनुवंशिक विकारों यानी जेनेटिक डिसऑर्डर्स की दर दुनिया में सबसे ज्यादा है, और ऐसे केसेज़ में से ‘दो-तिहाई केसेज़’ ब्लड-रिलेशन में शादी की वजह से हैं. हालांकि स्टडीज़ के मुताबिक़ लेबनान, जॉर्डन, मोरक्को और फ़लस्तीनियों में कज़न-मैरिज कम हो रही हैं,वहीं यूएई में इसकी दर बढ़ रही है.

कौन सी बीमारियां और डिफेक्ट होते हैं?

कंजेनाइटल डिफेक्ट यानी जन्मजात विकृतियों पर की गई एक लैटिन अमेरिकी स्टडी में कॉनसैन्ग्वीनियस मैरिज और कुछ रोगों जैसे हाइड्रोसिफेलस (यानी दिमाग में पानी होना) , पोस्टएक्सियल पॉलीडेक्टीली (यानी हाथ और पैरों की उंगलियों का ज्यादा होना), और बाईलैटरल ओरल क्लेफ्ट्स (यानी चेहरे और होंठ आदि पर दरारों) के बीच एक एसोसिएशन पाया गया. कंजेनाइटल यानी जन्मजात हार्ट डिफेक्ट पर उपलब्ध लिटरेचर के मुताबिक़ प्रति 1000 बच्चों पर 50 में जन्म से ह्रदय दोष भी होते हैं. इसी लिटरेचर के मुताबिक़ कज़न मैरिज का लेना-देना कुछ और डिसऑर्डर्स जैसे वेंट्रिकुलर सेप्टल डिफेक्ट और एट्रियल सेप्टल डिफेक्ट से भी है.

प्रोटियस सिंड्रोम और बाईलैटरल ओरल क्लेफ्ट्स (फोटो सोर्स- wikimedia और इंडिया टुडे)
प्रोटियस सिंड्रोम और बाईलैटरल ओरल क्लेफ्ट्स (फोटो सोर्स- wikimedia और इंडिया टुडे)
जेनेटिक डिसऑर्डर के अलावा इन्ब्रीडिंग का एन्थ्रोपोमेट्रिक मेज़रमेंट्स यानी हाथ-पैर की लंबाई, सिर का आकार, और वज़न वगैरह पर क्या प्रभाव पड़ता है, इस बारे में स्टडीज़ कोई ख़ास पैटर्न निकाल पाने में असफल रही हैं. यहां भी अलग-अलग स्टडीज़ में दोराय है. हालांकि कज़न-मैरिज से होने वाली संतानों के रेसेसिव जींस पर जो टेस्ट किए गए, उनसे बौद्धिक क्षमता यानी IQ लेवेल्स में कुछ कमी ज़रूर देखी गई. वहीं एडल्टहुड डिसऑर्डर्स जैसे- हाई बीपी, हार्ट डिजीज, स्ट्रोक, कैंसर, अस्थमा, ऑस्टियोपोरोसिस वगैरह के बारे में भी स्टडीज़ कहती हैं कि इनका सीधा संबंध इन्ब्रीडिंग कॉफिशिएन्ट से है.

फर्टिलिटी पर क्या फ़र्क पड़ता है?

फर्टिलिटी रेट्स की बात करें तो कज़न-मैरिज में ये दर आम शादियों की तुलना में ज्यादा है. यानी ज्यादा बच्चे पैदा होते हैं. और ये तथ्य आज का नहीं उन्नीसवीं सदी में चार्ल्स डार्विन के वक़्त का है. एक और समझने वाला आंकड़ा ये है कि ऐसी शादियों से होने वाले बच्चों का नंबर सामान्य बच्चों की तुलना में बढ़ता नहीं, क्योंकि ऐसे बच्चों की मृत्यु दर भी ज्यादा है. ऐसे समझिए कि ज्यादा फर्टिलिटी बस ज्यादा मोर्टेलिटी को कॉम्पेंशेट करने के लिए है. फर्टिलिटी ज्यादा क्यों है इसके पीछे एक तर्क दिया जाता है कि कज़न-मैरिज, बाकी शादियों की तुलना में कम उम्र में ही हो जाती हैं. हाल ही की एक स्टडी के मुताबिक़ कज़न-मैरिज का ज्यादा फर्टिलिटी रेट किसी बायोलॉजिकल कारण के चलते नहीं है. आइसलैंड में जहां कज़न-मैरिज आम बात है, वहां भी फर्टिलिटी रेट ज्यादा है. हालांकि एक स्टडीज़ ये भी कहती है कि, कज़न-मैरिज में ह्यूमन-ल्यूकोसाइट-एंटीजन की ज्यादा शेयरिंग के चलते, बर्थ-रेट कम भी हो सकता है, लेकिन ज्यादातर स्टडीज़ कज़न मैरिज में बर्थ-रेट के ज्यादा होने की तरफ़ ही इशारा करती हैं. माने कज़न-मैरिज में बांझपन की दर कम है.

निष्कर्ष के तौर पर हम अपना कोई व्यू नहीं दे रहे, लेकिन एक्सपर्ट्स का मानना यही है कि जेनेटिक एजुकेशन और शादी से पहले जेनेटिक काउन्सलिंग इस तरह की दिक्कतों को कम कर सकती है. विपक्ष में तर्क देने वाले लोग कहते हैं कि क्वीन विक्टोरिया, चार्ल्स डार्विन और अल्बर्ट आइंस्टाइन ने भी कज़न मैरिज की थी. उन्होंने तो इस पर विचार नहीं किया. लेकिन हमारा मानना है कि विचार करना और जानकारी रखना बेहतर है. मिडिल ईस्टर्न देशों जैसे कि बहरीन में हाई-स्कूल में ही जेनेटिक एजुकेशन प्रोग्राम चलाए जाते हैं. ब्रिटेन में गर्भवती महिलाओं को जेनेटिक स्क्रीनिंग ऑफर की जाती है, ताकि डाउन सिंड्रोम जैसे जेनेटिक डिसऑर्डर से बचा जा सके. क़तर की मिसाल हम आपको दे ही चुके, ब्रिटेन का HGC भी कहता है कि कजन मैरिज करने वाले कपल्स को बेबी कंसीव करने से पहले ही जेनेटिक काउंसेलिंग करवा लेनी चाहिए, ताकि बच्चे के लिए होने वाले रिस्क को समझा जा सके. अमेरिका केचचेरे-ममेरे भाई-बहनों के बीच शादी को लेकर क्या कहते हैं हमारे धर्मग्रंथ……

लाइफ स्टाइल। कई बार लोग तर्क देते हैं कि धर्मों में वैज्ञानिकता है, धर्मवेत्ताओं को पता था कि सगे-संबंधों में शादी करने से होने वाले बच्चे सामान्य बच्चों की तुलना में जेनेटिकली कमज़ोर हो सकते हैं. इस पर हम कोई टिप्पणी नहीं कर रहे. हालांकि, हमने विज्ञान के रास्ते इसे समझने की कोशिश की है. और इस पार्ट में आपको यही एंगल मिलेगा. यानी साइंस का एंगल.

तो सवाल है कि क्या ब्लड रिलेशन (Blood Relation) में शादी से बच्चे जेनेटिकली कमजोर या बीमार पैदा होते हैं? इसे समझने से पहले ये जानना ज़रूरी है कि ये जीन, DNA और गुणसूत्र वगैरह क्या होता है.

जीन और डीएनए का रिश्ता

कभी-कभी किसी व्यक्ति की बुरी आदत के लिए लोग उसे टोकते हैं. तो उसके पुरखों तक को लपेट लेते हैं. कहते हैं- तुम्हारा तो DNA ही ख़राब है. क्या ये कहना सही है?

DNA एक द्विसूत्रीय संरचना है. बायोलॉजी की किताबों से लेकर फिल्मों तक में आपने इसका स्ट्रक्चर देखा होगा. ये DNA हर जीवित प्राणी में पाया जाता है. तो फिर जीन क्या है? जीन और DNA अलग नहीं हैं. फर्क ये है कि हर जीन, DNA होता है, लेकिन हर DNA, जीन नहीं होता. कैसे?

हमारे या किसी भी जीव के शरीर में सबसे छोटी चीज़ होती है- सेल, यानी कोशिका. इनमें पाया जाता है न्यूक्लियस. इसी न्यूक्लियस में सामान्यतः 23 जोड़े क्रोमोजोम के पाए जाते हैं. यानी टोटल 46. इन्हीं क्रोमोजोम पर DNA लिपटा रहता है. लेकिन इन DNA में ही कुछ डीएनए ऐसे होते हैं, जो पहले mRNA और फिर प्रोटीन बनाते हैं. और इन्हीं प्रोटीन बनाने वाले DNA को कहा जाता है- ‘जीन’. हालांकि मेंडेल ने इसे जीन नाम नहीं दिया था, बस ये कहा था कि ये प्रोटीन ही लक्षण तय करते हैं. सही भी है क्योंकि यही प्रोटीन सेल-डिवीज़न के लिए ज़िम्मेदार होते हैं. अब जैसी सेल डिवीज़न, वैसी ही बॉडी ऑर्गन्स की ग्रोथ, और वैसी ही शारीरिक बनावट. और ये सेल डिवीज़न प्रायः पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक जैसा रहता है.

तो साफ़ है कि इन्हीं प्रोटीन बनाने वाले DNA यानी जींस में हमारी आनुवांशिक विशेषताओं की इनफार्मेशन होती है. जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में फ्लो करती है. हमारी अगली पीढ़ी में बाल किस रंग के होंगे, रेटिना का कलर क्या होगा और सबसे ख़ास बात कि उन्हें बीमारियां कौन-सी हो सकती हैं, ये सब इसी जीन और उसके पीढ़ी-दर-पीढ़ी जेनेटिक फ्लो से तय होता है.

जेनेटिक फ्लो का रेश्यो

ब्लड लाइन में पीढ़ी-दर-पीढ़ी जींस के साझा होने का रेश्यो क्या है. इसके पीछे बहुत जटिल जेनेटिक स्टडी है. आसान भाषा में इसे यूं समझिए कि एक ही ब्लड लाइन के किन्हीं दो व्यक्तियों में कॉन्सैन्ग्विनिटी(Consaguinity) यानी रक्त संबंध का परसेंटेज हर पीढ़ी में चार गुना तक कम हो जाता है. उल्टा कहें तो फ़र्स्ट कज़न्स में सेकंड कज़न्स की तुलना में चार गुना ज्यादा कॉन्सैन्ग्विनिटी होती है. वहीं फर्स्ट कज़न्स वन्स रिमूव्ड यानी आपकी बुआ या चाचा से आपकी जो कॉन्सैन्ग्विनिटी है, वो आपके फर्स्ट-कज़न्स(First- Cousin) यानी चाचा के बेटे से आपकी कॉन्सैन्ग्विनिटी की तुलना में आधी होती है. डबल फर्स्ट कज़न्स यानी अगर सगे भाई-बहन के एक जोड़े ने दूसरे सगे भाई-बहन के जोड़े से शादी की हो तो उनके बच्चे आपस में डबल फर्स्ट कज़न्स कहलाएंगे, और ऐसे बच्चों में रक्त संबंध फर्स्ट कज़न्स से भी दोगुना होता है. ये तो है पीढ़ी-दर-पीढ़ी जेनेटिक फ्लो के अनुपात की जानकारी, अब आते हैं मुख्य सवाल पर कि कज़न-मैरिज से जेनेटिक स्तर पर दिक्कतें होती क्यों हैं?

ऑटोसोमल रेसेसिव जेनेटिक डिसऑर्डर

प्रोटीन वाला DNA यानी जीन द्विसूत्रीय होता है, जिसमें एक हिस्सा डिजीज-म्यूटेटेड यानी बीमारी वाला हो सकता है. यानी ये जीन बीमार कर भी सकता है और नहीं भी. जब यह डिजीज म्यूटेटेड हिस्सा किसी को बीमार करता है, तब इसे ऑटोसोमल डोमिनेंट डिसऑर्डर कहते हैं. उदाहरण के लिए डायबिटीज को ले लीजिए. चूंकि टाइप-2 डायबिटीज हेरिटेज में चलने वाली बीमारी है, तो मान लीजिए अगर किसी में डायबिटीज वाला जीन हो तो संभावना रहेगी कि उसे या उसकी अगली पीढ़ी में भी किसी को डायबिटीज हो जाए. बीमारी नहीं भी हुई, लेकिन बीमारी वाला जीन तो शरीर में है ही. जाहिर है कि ब्लड-लाइन में जेनेटिक फ्लो के चलते, ये डिजीज म्यूटेटेड जीन इसी ब्लड-लाइन के किसी भी दूसरे व्यक्ति में हो सकता है.

Dailymail की एक रिपोर्ट के मुताबिक कज़न-कपल में एक जैसा डिजीज म्यूटेटेड जीन पाए जाने की संभावना, नॉन कज़न-कपल की तुलना में सौ गुनी तक हो सकती है. ऐसे में इन कपल्स की होने वाली संतान में जीन साझा होकर पहुंचेगे. और बीमारी वाले जींस के साझा होने यानी म्यूटेटेड जींस की दो कॉपीज़ पहुंचने से बीमारी एक्टिव हो सकती है. और तब इस बीमारी को ऑटोसोमल रेसेसिव जेनेटिक डिसऑर्डर कहते हैं.

स्टडीज क्या कहती हैं?

कज़न-मैरिज में आनुवंशिक पहलू हमेशा चर्चा का विषय रहा है. सैकड़ों स्टडीज की गई हैं, पढ़ना चाहें तो जर्नल ऑफ़ मेडिकल जेनेटिक्स पर जाकर डिटेल में ज्ञान ले सकते हैं.जिनसे कई तरह के निष्कर्ष निकलकर आते हैं. जिन्हें हम संक्षिप्त में आपको बताए देते हैं.

जर्नल ऑफ़ जेनेटिक काउंसिल की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ नॉन कज़न-कपल्स के बच्चों की तुलना में कज़न-कपल्स के बच्चों में बर्थ-डिफेक्ट 1 से 2 परसेंट तक ज्यादा रहता है. यानी 3% की तुलना में क़रीब 4 से 5 फ़ीसद तक. वहीं 1994 की एक स्टडी के मुताबिक़ कज़न-कपल्स के नवजात बच्चों की मृत्यु दर करीब 4.4% ज्यादा होती है. 2009 की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ बर्थ डिफेक्ट और मोर्टेलिटी में ये अंतर लगभग उतना ही है, जितना 40 साल की महिलाओं के बच्चों की मृत्यु दर और 30 साल की महिलाओं के बच्चों की मृत्यु दर में है. ज्यादा उम्र की महिलाओं के साथ क्या रिप्रोडक्टरी समस्याएं होती हैं, इस पर फिर कभी विस्तार से बात करेंगे.

भारत में की गई रिसर्च

लक्ष्मैया नायडू, जो कि मुरादाबाद के एक हॉस्पिटल रिसर्च सेंटर में प्रोफेसर हैं, उन्होंने जेनेटिक डिसऑर्डर्स से जूझ रहे कुछ मरीजों पर एक स्टडी की. इनमें से 200 मरीज़ ऐसे थे, जिनकी कज़न-मैरिज की हिस्ट्री रही थी. और इन 200 मरीजों की मेडिकल कंडीशन को जब केटेगराइज़ किया गया, तो आंकड़े डराने वाले थे. करीब 66 मरीज़ों में कार्डियोवैस्कुलर, पल्मोनरी या रीनल डिसऑर्डर्स थे. यानी दिल, फेफड़े और गुर्दों से जुडी हुई बीमारियां. करीब 56 मरीजों में ओरोफेशियल मैनीफेस्टेशंस थे, यानी चेहरे और बाहरी त्वचा से जुड़ी हुई दिक्कतें और इसी तरह 15 मरीज़ों में क्रेनियोफेशियल सिंड्रोम यानी चेहरे की विकृतियां थीं.

इसी तरह साउथ इंडिया में जहां कज़न-मैरिज का परसेंटेज ज्यादा है, वहां भी करीब कज़न-मैरिज से हुए 400 नवजात शिशुओं और बच्चों पर एक स्टडी की गई. इनमें से 63 बच्चों में 35 तरह के जेनेटिक डिसऑर्डर्स थे. और सबसे बड़ी बात ये कि ऑटोसोमल रेसेसिव डिसऑर्डर्स सबसे ज्यादा बच्चों में देखे गए. यानी पेरेंट्स के जींस के साझा होने के चलते बच्चों में जींस की डबल कॉपीज़ आने के कारण होने वाले डिसऑर्डर सबसे ज्यादा थे.

रिपीटेड कज़न-मैरिज

रिपीटेड कॉन्सैन्ग्वीनियस मैरिज, यानी एक ही ब्लड लाइन में बार-बार शादियों के मामले में जेनेटिक दिक्कतें और भी ज्यादा हैं. मसलन पाकिस्तान में जहां पीढ़ियों से कज़न-मैरिज होती आ रही हैं, वहां डबल-फर्स्ट कज़न्स के बच्चों का मोर्टेलिटी रेट 13 और फर्स्ट कज़न मैरीड कपल्स के बच्चों का मोर्टेलिटी रेट करीब 8 परसेंट है, जबकि नॉन-कज़न कपल्स के बच्चों की मृत्यु दर करीब 5 फ़ीसद है. इस अंतर की वजह ये कि रिपीटेड कजिन मैरिज के चलते जींस पीढ़ियों से शफल नहीं हो रहे, बल्कि जेनेटिक रिलेशनशिप और ज्यादा क्लोज होती जा रही है. और इस क्लोजनेस के चलते बीमारी वाले जींस भी ज्यादा प्रभावी हैं.

पाकिस्तान का उदाहरण

इसी तरह बीबीसी की एक रिपोर्ट में ब्रिटेन में रहने वाले पाकिस्तानियों पर भी एक स्टडी दी गई है. इनमें से करीब 55 फीसदी लोगों ने फर्स्ट-कज़न-मैरिज की थी. इनसे होने वाली संतानें ज्यादातर रिपीटेड कज़न-मैरिज से हुई थीं. रिपोर्ट कहती है कि इन बच्चों में सामान्य बच्चों की तुलना में करीब 13 गुना ज्यादा जेनेटिक डिसऑर्डर्स देखे गए. बीबीसी ये भी कहता है कि पाकिस्तानी ब्रिटिश बच्चों की संख्या, कुल ब्रिटिश बच्चों की संख्या का सिर्फ तीन फ़ीसदी है, जबकि जेनेटिक डिसऑर्डर वाले कुल ब्रिटिश बच्चों का लगभग एक तिहाई इन्हीं पाकिस्तानी-ब्रिटिश बच्चों से पूरा हो जाता है. इन बच्चों की मृत्यु-दर भी बाकी ब्रिटिश बच्चों की तुलना में ज्यादा है.

बीबीसी की इस स्टोरी में एक इंटरव्यू भी शामिल है. माइरा अली का. जिनके पेरेंट्स और ग्रैंडपेरेंट्स ने फर्स्ट-कज़न मैरिज की थी. माइरा को एक बहुत रेयर रेसेसिव जेनेटिक डिसऑर्डर था- एपीडेर्मोलिसिस बुलोसा. जिसके चलते उन्हें बहुत दिक्कतें उठानी पड़ीं, और बाद में स्किन कैंसर भी हो गया. माइरा इस सबके चलते फ़र्स्ट-कजिन मैरिज के खिलाफ़ थीं. 2010 में टेलीग्राफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ ब्रिटिश पाकिस्तानियों में कज़न मैरिज के चलते हर साल 700 बच्चे जेनेटिक डिसेबिलिटीज़ के साथ पैदा होते हैं.

हालांकि, UK के ह्यूमन जेनेटिक्स कमीशन के एक स्टेटमेंट के मुताबिक़ बीबीसी इस बात को स्पष्ट करने में असफल है कि पाकिस्तानी ब्रिटिश बच्चे 13 गुना ज्यादा जेनेटिक डिसऑर्डर वाले हैं, लेकिन रेसेसिव जेनेटिक डिसऑर्डर (यानी वो डिसऑर्डर जो उनके मां-बाप के जींस की कॉपीज़ के चलते हुए) के मामले में सामान्य बच्चों की तुलना में 13 गुना ज्यादा वाली BBC की संभावना सही है. HGC ये भी कहता है कि क्रोमोसोमल डिसऑर्डर, सेक्स-लिंक्ड कंडीशंस और ऑटोसोमल डोमिनेंट कंडीशंस का लेना-देना कज़न मैरिज से नहीं है.

नार्थ अमेरिका का उदाहरण

यहां एक और उदाहरण है- नार्थ अमेरिका का एक क्रिस्चियन ग्रुप ‘एमिश’(Amish. ) ये लोग मूल रूप से जर्मन स्विस लोग थे. जिनकी तादात वक़्त के साथ कुछ सैकड़ा से बढ़कर करीब 3 लाख हो गई. हालांकि एमिश लोगों में फ़र्स्ट कज़न मैरिज एक टैबू माना जाता है, लेकिन किन्हीं दो एमिश सेकंड कज़न्स के बीच का एवरेज इन्ब्रीडिंग कॉफिशिएन्ट किन्हीं दो नॉन-एमिश सेकंड कज़न्स की तुलना में काफ़ी ज्यादा है और ये लोग कई रेयर जेनेटिक डिसऑर्डर्स से जूझ रहे हैं. अमेरिका के ओहियो प्रांत में एमिश पापुलेशन वहां की कुल आबादी की सिर्फ़ दस फ़ीसद है, लेकिन यहां आधे से ज्यादा स्पेशल नीड केसेज़ इन्हीं एमिश लोगों के हैं.

पाकिस्तान के मुस्लिमों और अमेरिका के एमिश लोगों के उदाहरण से साफ़ हो जाता है कि रिपीटेड कज़न-मैरिज के चलते जीन शफल न हो पाना भी जेनेटिक रेसेसिव डिसऑर्डर्स की वजह है.

अरब देशों में जो कपल शादी करने के इच्छुक होते हैं, उन्हें एडवांस जेनेटिक स्क्रीनिंग करवानी होती है. कतर आख़िरी गल्फ़ कंट्री थी, जिसने 2009 में स्क्रीनिंग को मैंडेटरी कर दिया. यहां खास तौर पर वो कपल्स जो पहले से रिलेटेड हैं, उन्हें स्क्रीनिंग करवानी होती है. ऐसा इसलिए कि क़तर में कज़न मैरिज का करेंट रेट 54% है, पिछली पीढ़ी की तुलना में करीब 15 फ़ीसद ज्यादा. दुबई के ‘सेंटर फॉर अरब जीनोमिक स्टडीज’ (CAGS) की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ अरबों में आनुवंशिक विकारों यानी जेनेटिक डिसऑर्डर्स की दर दुनिया में सबसे ज्यादा है, और ऐसे केसेज़ में से ‘दो-तिहाई केसेज़’ ब्लड-रिलेशन में शादी की वजह से हैं. हालांकि स्टडीज़ के मुताबिक़ लेबनान, जॉर्डन, मोरक्को और फ़लस्तीनियों में कज़न-मैरिज कम हो रही हैं,वहीं यूएई में इसकी दर बढ़ रही है.

कौन सी बीमारियां और डिफेक्ट होते हैं?

कंजेनाइटल डिफेक्ट यानी जन्मजात विकृतियों पर की गई एक लैटिन अमेरिकी स्टडी में कॉनसैन्ग्वीनियस मैरिज और कुछ रोगों जैसे हाइड्रोसिफेलस (यानी दिमाग में पानी होना) , पोस्टएक्सियल पॉलीडेक्टीली (यानी हाथ और पैरों की उंगलियों का ज्यादा होना), और बाईलैटरल ओरल क्लेफ्ट्स (यानी चेहरे और होंठ आदि पर दरारों) के बीच एक एसोसिएशन पाया गया. कंजेनाइटल यानी जन्मजात हार्ट डिफेक्ट पर उपलब्ध लिटरेचर के मुताबिक़ प्रति 1000 बच्चों पर 50 में जन्म से ह्रदय दोष भी होते हैं. इसी लिटरेचर के मुताबिक़ कज़न मैरिज का लेना-देना कुछ और डिसऑर्डर्स जैसे वेंट्रिकुलर सेप्टल डिफेक्ट और एट्रियल सेप्टल डिफेक्ट से भी है.

प्रोटियस सिंड्रोम और बाईलैटरल ओरल क्लेफ्ट्स (फोटो सोर्स- wikimedia और इंडिया टुडे)
प्रोटियस सिंड्रोम और बाईलैटरल ओरल क्लेफ्ट्स (फोटो सोर्स- wikimedia और इंडिया टुडे)
जेनेटिक डिसऑर्डर के अलावा इन्ब्रीडिंग का एन्थ्रोपोमेट्रिक मेज़रमेंट्स यानी हाथ-पैर की लंबाई, सिर का आकार, और वज़न वगैरह पर क्या प्रभाव पड़ता है, इस बारे में स्टडीज़ कोई ख़ास पैटर्न निकाल पाने में असफल रही हैं. यहां भी अलग-अलग स्टडीज़ में दोराय है. हालांकि कज़न-मैरिज से होने वाली संतानों के रेसेसिव जींस पर जो टेस्ट किए गए, उनसे बौद्धिक क्षमता यानी IQ लेवेल्स में कुछ कमी ज़रूर देखी गई. वहीं एडल्टहुड डिसऑर्डर्स जैसे- हाई बीपी, हार्ट डिजीज, स्ट्रोक, कैंसर, अस्थमा, ऑस्टियोपोरोसिस वगैरह के बारे में भी स्टडीज़ कहती हैं कि इनका सीधा संबंध इन्ब्रीडिंग कॉफिशिएन्ट से है.

फर्टिलिटी पर क्या फ़र्क पड़ता है?

फर्टिलिटी रेट्स की बात करें तो कज़न-मैरिज में ये दर आम शादियों की तुलना में ज्यादा है. यानी ज्यादा बच्चे पैदा होते हैं. और ये तथ्य आज का नहीं उन्नीसवीं सदी में चार्ल्स डार्विन के वक़्त का है. एक और समझने वाला आंकड़ा ये है कि ऐसी शादियों से होने वाले बच्चों का नंबर सामान्य बच्चों की तुलना में बढ़ता नहीं, क्योंकि ऐसे बच्चों की मृत्यु दर भी ज्यादा है. ऐसे समझिए कि ज्यादा फर्टिलिटी बस ज्यादा मोर्टेलिटी को कॉम्पेंशेट करने के लिए है. फर्टिलिटी ज्यादा क्यों है इसके पीछे एक तर्क दिया जाता है कि कज़न-मैरिज, बाकी शादियों की तुलना में कम उम्र में ही हो जाती हैं. हाल ही की एक स्टडी के मुताबिक़ कज़न-मैरिज का ज्यादा फर्टिलिटी रेट किसी बायोलॉजिकल कारण के चलते नहीं है. आइसलैंड में जहां कज़न-मैरिज आम बात है, वहां भी फर्टिलिटी रेट ज्यादा है. हालांकि एक स्टडीज़ ये भी कहती है कि, कज़न-मैरिज में ह्यूमन-ल्यूकोसाइट-एंटीजन की ज्यादा शेयरिंग के चलते, बर्थ-रेट कम भी हो सकता है, लेकिन ज्यादातर स्टडीज़ कज़न मैरिज में बर्थ-रेट के ज्यादा होने की तरफ़ ही इशारा करती हैं. माने कज़न-मैरिज में बांझपन की दर कम है.

निष्कर्ष के तौर पर हम अपना कोई व्यू नहीं दे रहे, लेकिन एक्सपर्ट्स का मानना यही है कि जेनेटिक एजुकेशन और शादी से पहले जेनेटिक काउन्सलिंग इस तरह की दिक्कतों को कम कर सकती है. विपक्ष में तर्क देने वाले लोग कहते हैं कि क्वीन विक्टोरिया, चार्ल्स डार्विन और अल्बर्ट आइंस्टाइन ने भी कज़न मैरिज की थी. उन्होंने तो इस पर विचार नहीं किया. लेकिन हमारा मानना है कि विचार करना और जानकारी रखना बेहतर है. मिडिल ईस्टर्न देशों जैसे कि बहरीन में हाई-स्कूल में ही जेनेटिक एजुकेशन प्रोग्राम चलाए जाते हैं. ब्रिटेन में गर्भवती महिलाओं को जेनेटिक स्क्रीनिंग ऑफर की जाती है, ताकि डाउन सिंड्रोम जैसे जेनेटिक डिसऑर्डर से बचा जा सके. क़तर की मिसाल हम आपको दे ही चुके, ब्रिटेन का HGC भी कहता है कि कजन मैरिज करने वाले कपल्स को बेबी कंसीव करने से पहले ही जेनेटिक काउंसेलिंग करवा लेनी चाहिए, ताकि बच्चे के लिए होने वाले रिस्क को समझा जा सके. अमेरिका के Maine प्रांत में भी अब जेनेटिक काउंसलिंग आवश्यक कर दी गई है. इसी तर्ज़ पर हमारे यहां भी कम-से-कम जागरूकता तो लाई ही जा सकती है. Maine प्रांत में भी अब जेनेटिक काउंसलिंग आवश्यक कर दी गई है. इसी तर्ज़ पर हमारे यहां भी कम-से-कम जागरूकता तो लाई ही जा सकती है.